सियासत का मतलब ही है… स्वार्थ !

अगर किसी भी पार्टी का समर्थन न किया जाए और एक सच्चे क़लम को औज़ार बनाकर लिखा जाए तो स्याही से कुछ ऐसे हुर्फ़ निकलेंगे 👇

सियासत संभावनाओं के साथ साथ स्वार्थों का भी खेल है, इसपर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर मुहर तो लगा दी। लेकिन क्या ये उन्होंने या किसी भी राजनेता ने पहली बार किया है ?? लालू प्रसाद यादव ने 17 साल तक इन्ही सुशासन बाबु को क्या क्या नहीं कहा था कभी लालू को नीतीश के पेट में दांत दिखा था तो कभी आस्तीन का सांप थे नीतीश, लेकिन उसके बाद भी 17 साल की दुश्मनी को दरकिनार करते हुए दोनों एक साथ हो गए।

लालू यादव का वह बयान आज भी याद है जब नीतीश के साथ होने पर उन्होंने मंच से कहा था कि ”सांप्रदायिकता नाम के सांप का फन कुचलने (#BJP) के लिए मैं ज़हर का घोंट (नीतीश के साथ समझौता) पीने को तैयार हूं”। यानी उन्हें पता था कि डूबती हुई सियासत बचानी है तो नीतीश की नौका पर सवार हो जाओ। तो उधर NDA के साथ सालों पुराना रिश्ता ये कहते हुए नीतीश बाबु ने तोड़ डाला था कि ”मिट्टी में मिल जाउंगा लेकिन दोबारा भाजपा से दोस्ती नहीं करूंगा”।

पर देखिए सुशासन बाबु को शासन के लिए कीचड़ में मिलना ही पड़ गया जहां फिर कमल खिला, वाह रे कुर्सी और सियासत तेरे लिए क्या क्या न करना पड़ा। तो लालू जी भी ग़ज़ब कर गए, सियासत बचाने के लिए पूरे बिहार को अपना कहते हुए ज़हर का घोंट तो पी लिया, लेकिन अपने बच्चों की कुर्सी खिसक ना जाए इसकी पीड़ा बर्दाशस्त से बाहर थी लिहाज़ा उन्हें बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा गए। वाह रे लालू चचा… कमाल हैं आप।

अब ज़रा सियासत के तीसरे खंबे को देखिए, जो मौक़े की तलाश में इस क़दर बैठा हुआ था कि वह भूल ही गया कि ये वही नीतीश बाबु हैं जिनके जीतने पर पाकिस्तान में पटाखा छोड़ा गया था, ये वही सुशासन बाबु हैं जिनका DNA तो ख़राब है ही साथ ही साथ इशरत जहाँ के अब्बू भी हैं। लेकिन छोड़िए जनाब, कुर्सी का ख़्याल और कांग्रेस मुक्त राज्य बनाने के लिए इशरत जहां के अब्बू को अपना चचा बना लिया जाए तो क्या जाता है। वैसे भी वह कहावत तो है ही है वक़्त पर ”गधे” को भी बाप बनाना पड़ता है।

लेकिन इन सब के बीच अगर किसी की सबसे ज़्यादा दयनीय स्थिति हो गई है और देखकर तरस आ रहा है तो वह है देश की सबसे पुरानी और विलुप्त होने के कगार पर आ चुकी कांग्रेस की हालत। उसके सामने से तो लग रहा है कि किसी ने शाही पकवान छीन लिया हो, मानो तलाक़ पति और पत्नि के बीच हुआ हो लेकिन विधवा कांग्रेस हो गई।

बहरहाल इन सब चीज़ों को देखने के बाद मैं बेहद ख़ुश हूं क्योंकि मुझे किसी भी सियासी चेहरे और पार्टी को समर्थन न करने के फ़ैसले को सही साबित करने के लिए एक और उदाहरण मिल गया। ये राजनेता और पार्टियां न किसी की हुईं और न होंगी, बस अपने फ़ायदे और नुक़सान के लिए फ़ैसले बदलती और करती रहती हैं।

किसी के पास मौक़ा आए तो कोई आतंकवादियों की बेटी और अब अब्बू के साथ मिलकर सरकार बना ले, तो कोई पेट में दांत और आस्तीन के सांप को भी कुर्सी के लिए गले लगा लेता है। इसलिए कहता हूं भाईयों और बहनों ज़्यादा भक्तगिरी मत दिखाइए, वरना आप तो हरे और भगवा रंग के भक्तों के बीच दीवार बना देंगे और उसी दीवार के सहारे हरे और भगवा रंग का चोला ओढ़े राजनेता एक दूसरे के घर में जाकर ख़ूब अय्याशी करेंगे और बेवक़ूफ़ आप बनेंगे।

अभी भी वक़्त है नींद से जागिए और इनलोगों के चक्कर में अपने आस पास और भाईयों और बहनों के साथ हंसी और ख़ुशी के पल को बरबाद मत करिए। खुशी मनाइए और मिलकर रहिए, क्योंकि हम सभी अलग अलग रंगों में रंगे ज़रूर है लेकिन अंदर एक ही रंग का ख़ून है और वही सांस लेते हैं जो सभी रंग वाले लेते हैं। उसके अंदर भी हिन्दुस्तानी ख़ून है और हमारे अंदर भी भारतीय ख़ून है।

जय हिन्द… जब बिहार… वंदे मातरम्…

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